आमुख
हम सभी जानते हैं कि शिक्षा बालक की समस्त शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करती है। इससे वह समाज का एक उत्तरदायी घटक एवं राष्ट्र का प्रखर चरित्र सम्पन्न नागरिक बनकर समाज की सर्वांगीण उन्नति में अपनी शक्ति का उत्तरोत्तर प्रयोग करने की भावना से ओत-प्रोत होकर संस्कृति तथा सभ्यता को पुनर्जीवित एवं पुनर्स्थापित करने के लिए प्रेरित हो जाता है।
चूँकि शिक्षा एक सामाजिक आवश्यकता है। इसलिए शिक्षा के इतिहास में, अतीत की जिस सीमा तक हम जा सकते हैं, जो बहुत लम्बी नहीं है, हम पाते हैं कि शिक्षा मनुष्य-समुदाय की स्वाभाविक विशेषता रही हैं उसने सामाजिक विकास के युग में समाज को दिशा में और स्वरूप देने में सहायता दी है।
आज शिक्षा के विकास में तीव्र गति से वृद्धि हो रही है अनेक स्कूल, कॉलेज खोले जा रहे हैं तथा सभी को शिक्षा प्रदान करने का प्रयास किया जा रहा है। परन्तु गुणात्मक रूप से शिक्षा के विकास की अभी आवश्यकता बनी हुई है। अतः आवश्यकता है कि शिक्षा ऐसी हो जो बालक में सोचने, समझने, विचार करने की अभिवृत्ति को विकसित करे। भारत एक लोकतान्त्रिक, धर्मनिरपेक्षवादी तथा समाजवादी देश है शिक्षा के द्वारा राष्ट्र के इन बुनियादी सिद्धान्तों को अपनाया जा सकता है। वर्तमान में शिक्षा की नवीन शैक्षिक संरचना निर्मित करनी होगी।
प्रस्तुत पुस्तक के अन्तर्गत राष्ट्र व समाज से सम्बन्धित सम्पूर्ण सिद्धान्तों का ध्यान रखा गया है तथा इस पुस्तक का प्रयोग विभिन्न विश्वविद्यालयों के बी०एड०, एम०एड० के छात्र कर सकेंगे। शिक्षार्थियों, शिक्षकों एवं शिक्षक प्रशिक्षकों की ओर से प्रस्तुत पुस्तक के सम्बन्ध में कुछ विचार मेरे सम्मुख आये तो उनका हार्दिक स्वागत होगा।
लेखक उन सभी विद्वानों का आभारी है जिनकी रचनाओं से प्रस्तुत पुस्तक के लेखन में सहायता ली गई है इसके साथ-साथ संगीता, प्रभात कुमार, प्रशांत कुमार तथा देवप्रिया का विशेष सहयोग रहा।
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