भूमिका
इस उभरते हुए भारतीय समाज की गंभीर समस्या न धर्म है, न उद्योगीकरण है, न कामुकता है, न राजनीति है और न ही भ्रष्टाचार है बल्कि शिक्षा है। शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य अपनी क्षमताओं का विकास करता है, कार्यों को कुशलता से करना एवं जीवन की कला को सीखता है।
इस समस्या का समाधान किया जा सकता है, यदि विद्यमान एवं आने वाली शिक्षा की पीढ़ी को उपयुक्त शिक्षा प्रदान की जाए। आज़ादी के उपरान्त, प्रयोग में आई हमारी शिक्षा प्रणाली का सम्बन्ध व्यक्ति की आवश्यकताओं एवं रुचियों से ना के बराबर ही रहा है। समय के साथ-साथ यह जीवन की वास्तविकताओं से दूर होती जा रही है जिसके कारण इस शिक्षा प्रणाली को उचित नहीं माना जा सकता है। आर्थिक विकास की परिस्थिति में दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली को लम्बे समय तक उपयोग नहीं किया जा सकता।
इन दोषों को समझते हुए, भारतीय शिक्षा आयोग (1964- 66) ने शिक्षा में सुधार एवं उत्पादकता लाने की दृष्टि से शिक्षा में नए प्रतिमान को अनुशासित किया है। हमारा देश अब इस नए 10+2+3 प्रतिमान को कार्यान्वित करने में व्यस्त है। भारत सरकार का यह भी मानना है कि भारतीय शिक्षा आयोग (1964-66) द्वारा अनुशासित शिक्षा प्रतिमान, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास, राष्ट्रीय एकता एवं आदर्श समाज के निर्माण के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
अतः राष्ट्रीय विकास एवं शिक्षा के विस्तार के लिए शिक्षा मनोविज्ञान के महत्व को समझते हुए लेखक-लेखिका ने इस पुस्तक की रचना की है। इस पुस्तक में +2 स्तर के विद्यार्थियों के लिए आवश्यक विषय-वस्तु प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत की गई है। सभी आधुनिक लेखक एवं प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिकों के सिद्धान्तों एवं नियमाँ को सहजता एवं विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। पाठ एवं पुस्तक के अन्त में दिए गए प्रश्न-उत्तर विद्यार्थियों को अपने ज्ञान का परीक्षण करने में सहायता करेंगे। इसके साथ-साथ, अन्त में दी गई ग्रन्थ-सूचि विद्यार्थियों को शिक्षा मनोविज्ञान की किसी भी विषय-वस्तु का विस्तृत ज्ञान प्राप्त करने में सहायता करेगी।
लेखक एवं लेखिका अपने कॉलेज के अध्यक्ष, सहकर्मियों, मित्रों एवं विद्यार्थियों की आभारी हैं जिन्होंने उन्हें यह पुस्तक लिखने के लिए प्रोत्साहित किया।
डॉ. आर.एल. दलाया एवं डॉ. राजीव कुमार सिंह को हस्तलेख की जाँच करने तथा श्री सुरेश चन्द्र शर्मा का इस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद।
– डॉ. एकता शर्मा
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